मन से संवाद (कविता)

एक दिन निराश मन मेरा,
होने लगा हताश फ़िर से,
भर कर पीड़ा से करने लगा संवाद मुझसे,
कब तक जोर लगाएगा गा तू, 
मुझे पता है अंत मे हार ही जाएगा तू ,
तु तुच्छ मानव है, कोई देव नहीं,
रोग जरा ही , मानव का सार है, कुछ और नहीं,
जब तक जियेगा मृत्यु का भय ही तुझे सताएगा,
एक दिन दौड़ते दौड़ते थक और हार जाएगा,
मुखर हो कर मैंने निराश मन को जवाब दिया, 
उठ हे मन तुझे आज मानव दर्शन कराता हू, 
हुआ जो सफर सुरू अंधेरी गुफाओं से,
भोजन की तलाश और, मार्मिक घटनाओं से 
देख अन्तरिक्ष मे भी तुझे बस्तियां दिखाता हू, 
देख इस अंत हीन हिमालय को, 
मनुज के दुस्साहस से यह भी हैरान हैं, इसके भी शीर्ष पर मानुष के कदमो के निशान है, 
देख तू चाँद को, याद कर नील आर्मस्ट्रांग को, 
 ऐसी कोई मंजिल नहीं जिसको तू पा ना सके,
हे मन उठ अब आ प्रण करते हैं, 
जबतक मंजिल ना मिले तबतक ना विराम हो, 
चलना ही अपना काम हो,
जब घनघोर निराशा आएगी, 
असफलताओं की काली रात छायेगी
चीर उस अंधकार को भोर करेंगे, 
हो सफल तब अपनी सफलता से शोर करेंगे, 
हर्षित हो अब मनं मेरा था ऊर्जा से भर गया,
हो मन के साथ मैं भी, मंजिल के लिए निकल गया,
                                            - - निर्भय आनंद 

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