मेरी जात (कविता)
पूछोगे तुम नाम मेरा
फिर जाँचोगे तुम धर्म मेरा,
तब पूछोगे तुम जात मेरी.,
फिर नापोगे औकात मेरी,
जहीर है फिर कोई जाति सूचक शब्द कहोगे,
फिर खूब ठहाका लेकर हँसोगे,
फिर 12 बजने का जिक्र भी आएगा,
चारो तरफ हंसी मजाक छा जाएगा,
अरे भाई कह तो दिया नहीं मानता मै धर्म जात.
मनुष्य वैसे ही हैं जैसे पृथ्वी रूपी पेड़ पर लगे हो पात.
फिर तुम्हें लगेगा नहीं इसे अब कुछ कहने को,
अपनी जाति गाथा का वर्णन करने को,
तो सुनो वीर हू अहिर हू मै,
कृष्ण हू, और गीता का सार हू मै,
महाभारत का आरंभ और कौरवों का अंत हू मै,
प्रीति की गागर हू मै, आत्मा का मंथन हू मै,
रहूंगा फिर भी अपरिभाषित चाहे जितना लिखूं मै,
ज्ञानियों का गुंथन हू मै, गाय का ग्वाला हू मै,
हां वीर हू अहिर हू मै,अब समझ गए
इस पृथ्वी का एक मानव ही तो हू मै,
- - - - - - - - - -निर्भय आनंद
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